Friday, August 5, 2011

किताबें और हम (Dedicated to all Book lovers)

किताबें जो झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से,
बड़ी हसरत से तख्ती हैं,
महीनों मुलाकातें नहीं होती अब,
जो शामें उनके साथ कटा करती थी ,
अब अक्सर गुज़र जाती हैं लैपटॉप के परदे पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें,
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गयी है,
बड़ी हसरत से तकती हैं
जो कहानियां वोह सुनाती थी,
जिनके पेज के निशान कभी मरते नहीं थे,
वोह किताबें अब नज़र नहीं आती हैं कहीं घर में.
जो पक्के रिश्ते वोह बनाती थी,
वह उढे उढे से हैं अब,
आज कल फसबूक के फ्रेंड जो नए रिश्ते बुनते  हैं.
कोई पेज पलटना होता है तोह सिसकियाँ निकलती हैं,
कई लफ़्ज़ों के माएने गिर पड़े हैं,
आज कल पेज बस LIKE करने को जो होते हैं.
जुबान पर ज़ायका आता था किताबों के पन्ने पलटने का,
अब ऊँगली के एक क्लिक से दुनिया पलट जाती हैं,
बहुत कुछ तह बतह खुलता जाता है स्क्रीन पर,
किताबों से जो ज्याति रिश्ता था,
मिट सा गया है वोह,
कभी सीने पर रखते थे,
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रेहेल की सूरत बना कर,
नीम के सजदे में पढ़ा करते थे,
Chats और Msgs तोह बहुत मिलते रहते हैं,
मगर वोह किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
दफन से होके रह गए हैं किताबों में कहीं.
वोह किताबें मांगने, उठाने, और बदलने के बहाने,
जो रिश्ते बना करते थे पहले कभी,
उनका क्या होगा... वोह शायद अब नहीं होंगे...
अब तोह बस स्क्रीन पर Virtual रिश्ते बनते बिगड़ते हैं.
 

- रोहन सिंह

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